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याभि॑र्वि॒श्पलां॑ धन॒साम॑थ॒र्व्यं॑ स॒हस्र॑मीळ्ह आ॒जावजि॑न्वतम्। याभि॒र्वश॑म॒श्व्यं प्रे॒णिमाव॑तं॒ ताभि॑रू॒ षु ऊ॒तिभि॑रश्वि॒ना ग॑तम् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yābhir viśpalāṁ dhanasām atharvyaṁ sahasramīḻha ājāv ajinvatam | yābhir vaśam aśvyam preṇim āvataṁ tābhir ū ṣu ūtibhir aśvinā gatam ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

याभिः॑। वि॒श्पला॑म्। ध॒न॒ऽसाम्। अ॒थ॒र्व्य॑म्। स॒हस्र॑ऽमीळ्हे। आ॒जौ। अजि॑न्वतम्। याभिः॑। वश॑म्। अ॒श्व्यम्। प्रे॒णिम्। आव॑तम्। ताभिः॑। ऊँ॒ इति॑। सु। ऊ॒तिऽभिः॑। अ॒श्वि॒ना॒। आ। ग॒त॒म् ॥ १.११२.१०

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:112» मन्त्र:10 | अष्टक:1» अध्याय:7» वर्ग:34» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:16» मन्त्र:10


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे दोनों कैसे हैं, यह विषय अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सेना और युद्ध के अधिकारी लोगो ! (याभिः) जिन (ऊतिभिः) रक्षाओं से (सहस्रमीळ्हे) असंख्य पराक्रमादि धन जिसमें हैं उस (आजौ) संग्राम में (विश्पलाम्) प्रजा के पालन करनेहारों को ग्रहण करने (धनसाम्) और पुष्कल धन देनेहारी (अथर्व्यम्) न नष्ट करने योग्य अपनी सेना को (अजिन्वतम्) प्रसन्न करो, वा (याभिः) जिन रक्षाओं से (वशम्) मनोहर (प्रेणिम्) और शत्रुओं के नाश के लिये प्रेरणा करने योग्य (अश्व्यम्) घोड़ों वा अग्न्यादि पदार्थों के वेगों में उत्तम की (आवतम्) रक्षा करो, (ताभिरु) उन्हीं रक्षाओं के साथ प्रजा पालन के लिये (स्वागतम्) अच्छे प्रकार आया कीजिये ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को यह अवश्य जानना चाहिये कि शरीर, आत्मा की पुष्टि और अच्छे प्रकार शिक्षा की हुई सेना के विना युद्ध में विजय और विजय के विना प्रजापालन, धन का संचय और राज्य की वृद्धि होने को योग्य नहीं है ॥ १० ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कीदृशावित्याह ।

अन्वय:

हे अश्विना सेनायुद्धाधिकृतौ युवां याभिरूतिभिः सहस्रमीळ्ह आजौ विश्पलां धनसामथर्व्यमजिन्वतं याभिर्वशं प्रेणिमश्व्यमावतं ताभिरूतिभिर्युक्तौ भूत्वा प्रजापालनाय स्वागतम् ॥ १० ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (याभिः) (विश्पलाम्) विशः प्रजाः पात्यनेन सैन्येन तल्लाति यया ताम् (धनसाम्) धनानि सनन्ति संभजन्ति येन ताम् (अथर्व्यम्) अहिंसनीयां स्वसेनाम् (सहस्रमीळ्हे) सहस्राणि मीळ्हानि धनानि यस्मात् तस्मिन् (आजौ) संग्रामे। आजाविति संग्रामना०। निघं० २। १७। (अजिन्वतम्) प्रीणीतम् (याभिः) (वशम्) कमनीयम् (अश्व्यम्) तुरङ्गेषु वेगादिषु वा साधुम् (प्रेणिम्) शत्रुनाशाय प्रेरितुमर्हम् (आवतम्) रक्षतम्। अन्यत् पूर्ववत् ॥ १० ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरिदमवश्यं ज्ञातव्यं शरीरात्मपुष्ट्या सुशिक्षितया सेनया च विना युद्धे विजयस्तमन्तरा प्रजापालनं श्रीसञ्चयो राजवृद्धिश्च भवितुमयोग्यास्ति ॥ १० ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी हे अवश्य जाणले पाहिजे की शरीर, आत्म्याची पुष्टी व चांगल्या प्रकारे शिक्षित केलेल्या सेनेशिवाय युद्धात विजय मिळू शकत नाही व विजयाशिवाय प्रजेचे पालन, धनाचा संचय व राज्याची वृद्धी होऊ शकत नाही. ॥ १० ॥